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22 Jul 2025, Tue

कोल्हापुरी चप्पलें दुनियाभर में मशहूर हैं, लेकिन इन्हें बनाने वाले कारीगर किस हाल में हैं?

कोल्हापुरी चप्पलें दुनियाभर में मशहूर हैं

कोल्हापुरी चप्पलें दुनियाभर में मशहूर हैं, लेकिन क्या कारीगरों को मिला उनका हक़?

हाल ही में दुनिया के प्रतिष्ठित इटालियन फैशन ब्रांड ‘प्राडा’ ने अपने एक फैशन शो में ऐसी चप्पलों का प्रदर्शन किया, जो काफी हद तक भारत की प्रसिद्ध कोल्हापुरी चप्पलों से मिलती-जुलती थीं। सोशल मीडिया और फैशन जगत में यह खबर तेजी से फैली। कुछ लोगों ने इसे भारत की सांस्कृतिक धरोहर के लिए ‘गर्व का क्षण’ बताया, लेकिन कई लोगों ने इस पर गहरी आपत्ति जताई—क्योंकि उस शो में कोल्हापुर या भारत का कोई ज़िक्र तक नहीं किया गया।


👣 कोल्हापुरी चप्पलें: सिर्फ फैशन नहीं, एक विरासत

कोल्हापुरी चप्पलें महाराष्ट्र की परंपरा का हिस्सा हैं। ये सिर्फ एक पहनने की वस्तु नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान, स्थानीय शिल्पकला, और सामाजिक इतिहास का प्रतीक हैं। इन चप्पलों का इतिहास शाहू महाराज के समय से जुड़ा हुआ है, जब स्थानीय कारीगरों को राजाश्रय मिला और इस हस्तकला को पहचान और प्रोत्साहन मिला।

इन चप्पलों की बनावट, डिज़ाइन और टिकाऊपन उन्हें अन्य चप्पलों से अलग बनाता है। ये पूरी तरह हस्तनिर्मित होती हैं, और खास तौर पर केमिकल-फ्री चमड़े से बनाई जाती हैं।


🔨 कारीगर कौन हैं?

कोल्हापुरी चप्पलों के निर्माण में आज कई जातियों और समुदायों के लोग जुड़े हैं, लेकिन असली कारीगरी, पीढ़ियों से चली आ रही जो तकनीक है, वह ज्यादातर चमड़े का काम करने वाले दलित समुदायों के हाथों में है। ये कारीगर कोल्हापुर और उसके आसपास के इलाकों में बसे हुए हैं, जिनकी आजीविका इस शिल्प पर निर्भर है।

इन चप्पलों को बनाने में 6 से 8 घंटे तक मेहनत लगती है, लेकिन इसके बावजूद कारीगरों को इसका उचित मूल्य नहीं मिल पाता। बिचौलियों और व्यापारी नेटवर्क के कारण जो चप्पल वैश्विक बाजार में हजारों रुपये में बिकती है, उसके मूल निर्माता को मात्र कुछ सौ रुपये ही मिलते हैं।


💢 ‘प्राडा’ पर नाराज़गी क्यों?

जब ‘प्राडा’ जैसे प्रतिष्ठित ब्रांड ने कोल्हापुरी जैसी चप्पलों का प्रदर्शन किया, तो यह बहस छिड़ गई कि क्या यह सांस्कृतिक सम्मान है या सांस्कृतिक चोरी (Cultural Appropriation)?

स्थानीय कारीगरों ने नाराज़गी जताई कि:

  • शो में कोल्हापुर या भारत का कोई उल्लेख नहीं था।

  • चप्पल की प्रेरणा भारतीय हस्तशिल्प से ली गई, पर श्रेय नहीं दिया गया।

  • इससे यह सवाल उठा कि क्या अंतरराष्ट्रीय ब्रांड भारत की सांस्कृतिक संपत्ति को सिर्फ फैशन के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि असली निर्माता हाशिए पर रह जाते हैं?


🤔 यह सिर्फ कोल्हापुरी की बात नहीं है

यह विवाद एक बड़े मुद्दे की ओर इशारा करता है—भारतीय हस्तकला और कारीगरों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान और सम्मान नहीं मिल पा रहा है। दुनियाभर में भारत की पारंपरिक वस्तुएं—मधुबनी पेंटिंग, बंधनी, चंदेरी, कांथा कढ़ाई—फैशन और इंटीरियर डिज़ाइन में ट्रेंड बना रही हैं, लेकिन इनके पीछे के शिल्पकारों का नाम कहीं खो जाता है।


समाधान की राह: क्या किया जा सकता है?

  1. GI टैग का सही इस्तेमाल – कोल्हापुरी चप्पल को 2019 में GI (Geographical Indication) टैग मिला है। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि GI टैग वाली चीज़ों का कोई भी अंतरराष्ट्रीय उपयोग उचित क्रेडिट और रॉयल्टी के साथ हो।

  2. ब्रांड-कारीगर साझेदारी – बड़े फैशन ब्रांड्स को स्थानीय कारीगरों के साथ प्रत्यक्ष सहयोग करना चाहिए, जिससे उन्हें न केवल आर्थिक फायदा मिले, बल्कि पहचान भी मिले।

  3. सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर प्रचार – डिजिटल मार्केटिंग, ई-कॉमर्स और सोशल मीडिया के जरिए कोल्हापुरी चप्पलों को ब्रांड इंडिया के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

  4. कारीगरों के लिए प्रशिक्षण और बाजार तक सीधी पहुंच – उन्हें व्यापारिक समझ, डिज़ाइन इनोवेशन और वैश्विक बाजार से जोड़ना बेहद ज़रूरी है।


🧵 निष्कर्ष: सम्मान तभी पूरा है, जब जड़ें न भूली जाएं

कोल्हापुरी चप्पलें भारत की सिर्फ एक पारंपरिक चीज़ नहीं, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान हैं। इन्हें वैश्विक मंच पर देखना गर्व की बात है—but सिर्फ तभी जब असली निर्माता को उसका हक, श्रेय और मुनाफा दोनों मिले।

‘प्राडा’ जैसे ब्रांडों के लिए यह एक मौका है—सम्मान दिखाने का, साझेदारी का, और एक प्रेरणा को पहचान देने का

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