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31 Oct 2025, Fri

Explainer: भारत-चीन की नज़दीकी से अमेरिका में हलचल, पश्चिमी देशों पर हावी होगा ग्लोबल साउथ

Explainer: भारत-चीन की नज़दीकी से अमेरिका में हलचल, पश्चिमी देशों पर हावी होगा ग्लोबल साउथ

Explainer: भारत-चीन की नज़दीकी से अमेरिका में खलबली, पश्चिमी प्रभुत्व को चुनौती देता ग्लोबल साउथ

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ वॉर ने जिस तरह वैश्विक व्यापार समीकरणों को बदलने की कोशिश की, उसका एक अप्रत्याशित असर सामने आ रहा है। भारत और चीन जैसे दो एशियाई दिग्गज, जो दशकों से आपसी मतभेदों और सीमा विवादों में उलझे रहे हैं, अब नज़दीक आने लगे हैं। इस बदलते समीकरण से अमेरिका और पश्चिमी देशों में खलबली मच गई है।

यह बदलाव केवल भारत-चीन संबंधों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह ब्रिक्स (BRICS) और ग्लोबल साउथ (Global South) की ताकत को नया आयाम दे रहा है। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे क्षेत्रों के देश पहले से कहीं अधिक मज़बूती से एकजुट हो रहे हैं और पश्चिमी प्रभुत्व को चुनौती दे रहे हैं।


टैरिफ वॉर और भारत-चीन की नज़दीकी

डोनाल्ड ट्रंप ने अपने “अमेरिका फर्स्ट” एजेंडा के तहत भारत और चीन पर भारी-भरकम टैरिफ लगाए। उनका मक़सद था घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देना और एशियाई देशों की बढ़ती ताकत को सीमित करना। लेकिन हुआ इसका उल्टा।

  • कोविड-19 महामारी और वैश्विक आपूर्ति शृंखला संकट ने पहले ही तनाव बढ़ा दिया था।

  • टैरिफ वॉर ने भारत-चीन जैसे देशों को पश्चिम पर निर्भरता कम करने और आपसी सहयोग बढ़ाने की दिशा में धकेला।

  • नतीजा यह हुआ कि ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ के देश, जो पहले बिखरे हुए थे, अब एक नई धुरी बनाने लगे हैं।

भारत-चीन की नज़दीकी ब्रिक्स को और मज़बूत करती दिख रही है।


ग्लोबल साउथ क्या है?

ग्लोबल साउथ एक ऐसा शब्द है, जो मुख्य रूप से एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और ओशिनिया के विकासशील देशों को संदर्भित करता है। यह शब्द 1969 में अमेरिकी राजनीति विज्ञानी कार्ल ओग्लेसबी ने पहली बार इस्तेमाल किया था।

  • शीत युद्ध के दौरान यह शब्द उन देशों के लिए प्रयोग हुआ जो न तो पूंजीवादी “फ़र्स्ट वर्ल्ड” (पश्चिम) और न ही साम्यवादी “सेकंड वर्ल्ड” (सोवियत ब्लॉक) का हिस्सा थे।

  • इन देशों में उपनिवेशवाद का इतिहास, गरीबी, आय असमानता और विकास की चुनौतियाँ आम रही हैं।

  • भौगोलिक दृष्टि से यह परिभाषा सटीक नहीं है। उदाहरण के लिए भारत और चीन उत्तरी गोलार्ध में होने के बावजूद ग्लोबल साउथ का हिस्सा माने जाते हैं।

आज ग्लोबल साउथ में भारत, चीन, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया और कई अफ्रीकी व लैटिन अमेरिकी देश शामिल हैं।


ग्लोबल साउथ की ताकत क्यों बढ़ रही है?

1. आर्थिक शक्ति का बदलाव

  • विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, 2030 तक दुनिया की चार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से तीन (भारत, चीन और इंडोनेशिया) ग्लोबल साउथ से होंगी।

  • ब्रिक्स का संयुक्त जीडीपी पहले ही जी-7 देशों से अधिक हो चुका है।

  • “संपत्ति का केंद्र” उत्तरी अटलांटिक से एशिया-प्रशांत क्षेत्र की ओर शिफ्ट हो रहा है।

2. राजनीतिक और कूटनीतिक एकजुटता

  • भारत ने वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट के ज़रिए विकासशील देशों की आवाज़ को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुँचाया।

  • जी-20 में अफ्रीकी संघ को शामिल करवाना भारत की पहल का उदाहरण है।

  • चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और भारत के ग्लोबल डेवलपमेंट कॉम्पैक्ट जैसे प्रयास ग्लोबल साउथ को एक विकल्प और दिशा दे रहे हैं।

3. भू-राजनीतिक संतुलन

  • रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान कई ग्लोबल साउथ देशों ने नाटो का समर्थन करने से इनकार कर दिया।

  • इससे पश्चिमी देशों की एकतरफ़ा नीतियों पर अंकुश लगा।


पश्चिमी देशों में खलबली क्यों मची?

ग्लोबल साउथ और ब्रिक्स के उभार ने पश्चिमी देशों की चिंता कई वजहों से बढ़ाई है:

  • आर्थिक चुनौती: जी-7 का आर्थिक प्रभुत्व लगातार कम हो रहा है। ब्रिक्स देशों का बढ़ता व्यापार और निवेश इसका सबूत है।

  • नियम-आधारित व्यवस्था पर सवाल: ग्लोबल साउथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, विश्व बैंक और IMF जैसे संस्थानों में सुधार की मांग कर रहा है।

  • डॉलर पर निर्भरता कम करना: कई देश अमेरिकी डॉलर के बजाय स्थानीय मुद्राओं (जैसे युआन) में व्यापार कर रहे हैं।

  • जलवायु और वित्तीय असंतोष: ग्लोबल नॉर्थ की तुलना में अधिक उत्सर्जन करने के बावजूद, जलवायु परिवर्तन का बोझ ग्लोबल साउथ झेल रहा है। वित्तीय सहयोग में पश्चिमी देशों की उदासीनता असंतोष बढ़ाती है।


भारत और चीन की भूमिका

भारत और चीन के बीच मतभेद किसी से छिपे नहीं हैं। सीमा विवाद और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा दोनों देशों के रिश्तों में तनाव लाते रहे हैं। लेकिन मौजूदा परिस्थितियाँ उन्हें सहयोग की ओर धकेल रही हैं।

  • भारत: जी-20, ग्लोबल साउथ समिट और वैक्सीन मैत्री जैसे प्रयासों से एक भरोसेमंद नेता के रूप में उभरा है।

  • चीन: BRI के ज़रिए बुनियादी ढांचे और निवेश पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, लेकिन “कर्ज़ जाल” की आलोचना झेल रहा है।

  • संभावित तालमेल: दोनों देश मिलकर ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ को और मज़बूत कर सकते हैं, जिससे पश्चिमी प्रभुत्व को गंभीर चुनौती मिलेगी।


कोविड-19 और वैक्सीन कूटनीति

महामारी के दौरान पश्चिमी देशों ने वैक्सीन का जमाखोरी की। इससे विकासशील देशों में असंतोष फैला। इसके उलट भारत ने वैक्सीन मैत्री अभियान के तहत दर्जनों देशों को मुफ्त वैक्सीन उपलब्ध कराई।

इससे भारत की छवि ग्लोबल साउथ के भरोसेमंद नेता की बनी। वहीं चीन ने भी बड़े पैमाने पर वैक्सीन निर्यात किया, जिससे उसकी पकड़ कई देशों में मज़बूत हुई।


सामाजिक और वैचारिक बदलाव

ग्लोबल साउथ अब केवल “नियमों का पालन करने वाला” (Rule-taker) नहीं बनना चाहता। वह “नियम बनाने वाला” (Rule-maker) बनना चाहता है।

  • संयुक्त राष्ट्र, IMF और विश्व बैंक में बराबरी की हिस्सेदारी की मांग इसकी झलक है।

  • यह बदलाव एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर इशारा करता है, जहाँ शक्ति केवल पश्चिम के हाथों में नहीं रहेगी।


पश्चिम के लिए चुनौती और अवसर

पश्चिमी देशों के लिए यह स्थिति दोहरी है:

  • एक ओर, भारत और चीन की नज़दीकी और ग्लोबल साउथ की एकजुटता उनके प्रभुत्व के लिए चुनौती है।

  • दूसरी ओर, वे भारत को “ग्लोबल नॉर्थ” और “ग्लोबल साउथ” के बीच पुल मानते हैं। इसलिए भारत के साथ सहयोग बढ़ाना उनके लिए ज़रूरी भी है।


निष्कर्ष

भारत-चीन की नज़दीकी और ग्लोबल साउथ का उभार वैश्विक शक्ति संतुलन को नई दिशा दे रहा है।

  • अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए यह एक “जागने की घंटी” है।

  • अब उन्हें स्वीकार करना होगा कि वैश्विक निर्णय-प्रक्रिया में विकासशील देशों की भागीदारी अनिवार्य है।

  • भारत जैसे देश इस बदलते समीकरण में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं — कभी पश्चिम के साझेदार के रूप में, तो कभी ग्लोबल साउथ के नेता के तौर पर।

आने वाले समय में यह टकराव और सहयोग का मिश्रण तय करेगा कि 21वीं सदी का असली शक्ति केंद्र कहाँ होगा — वॉशिंगटन और ब्रसेल्स में, या दिल्ली और बीजिंग में।

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