Trump युग में अमेरिकी सपना हुआ फीका: भारतीय छात्रों का अमेरिका से मोहभंग, दाखिलों में ऐतिहासिक गिरावट
नई दिल्ली। कभी भारतीय छात्रों के लिए उच्च शिक्षा का सबसे प्रतिष्ठित गंतव्य माना जाने वाला अमेरिका अब अपनी चमक खोता नजर आ रहा है। हाल के आंकड़े और शिक्षा विशेषज्ञों की राय इस ओर इशारा करती है कि अमेरिका में पढ़ाई करने जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या में नाटकीय और ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गई है।
रिपोर्ट्स बताती हैं कि पिछले एक साल में अमेरिका जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या में 40% से लेकर 70% तक की कमी देखी जा रही है। यह प्रवृत्ति न केवल छात्रों और अभिभावकों को चिंतित कर रही है, बल्कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों की अर्थव्यवस्था के लिए भी बड़ा झटका है।
दाखिलों में गिरावट: क्या कहते हैं ताज़ा आंकड़े?
ट्रांसनेशनल एजुकेशन (TNE) रिपोर्ट 2024-25 के अनुसार, अमेरिका में भारतीय छात्रों के आवेदनों में 13% की गिरावट दर्ज हुई है। लेकिन भारत के प्रमुख शिक्षा केंद्र हैदराबाद की कंसल्टेंसी फर्मों का दावा है कि यह गिरावट वास्तव में 70% से 80% तक पहुंच चुकी है।
पिछले साल जहां भारत से 3.3 लाख छात्र अमेरिका गए थे, वहीं इस वर्ष यह संख्या काफी कम हो जाने का अनुमान है। अगस्त 2025 में अमेरिका में विदेशी छात्रों का आगमन पिछले चार सालों में सबसे कम रहा। लगातार पांच महीनों से यह गिरावट देखी जा रही है, जो शिक्षा जगत के लिए गंभीर संकेत है।
गिरावट के पीछे छिपे बड़े कारण
1. सख्त वीजा नीतियां और बढ़ती अस्वीकृति
भारतीय छात्रों के सामने सबसे बड़ी बाधा अमेरिका की कठोर वीजा नीतियां बन गई हैं। वीजा इंटरव्यू के लिए स्लॉट मिलना ही कठिन हो गया है और जब स्लॉट मिलते भी हैं तो अस्वीकृति की दर रिकॉर्ड स्तर पर है। कई छात्रों को अमेरिकी वीजा कानून की धारा 214(B) के तहत बिना किसी स्पष्ट कारण के अस्वीकृति का सामना करना पड़ा है।
शिक्षा सलाहकार अरविंद मंडुवा के अनुसार, “कई छात्र पूरी प्रक्रिया सफलतापूर्वक पूरी करने के बावजूद अचानक वीजा अस्वीकृतियों की चपेट में आ रहे हैं।”
2. राजनीतिक अनिश्चितता और ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति
डोनाल्ड ट्रंप की सत्ता में वापसी के बाद उनकी “अमेरिका फर्स्ट” नीति ने विदेशी छात्रों और अप्रवासियों के बीच गहरी चिंता पैदा कर दी है। हाल ही में हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय छात्रों के नामांकन पर रोक की खबर ने स्थिति को और धुंधला कर दिया है। छात्रों और अभिभावकों को डर है कि आने वाले वर्षों में और भी कड़े कदम उठाए जा सकते हैं।
3. एच-1बी वीजा शुल्क में भारी इज़ाफ़ा
भारतीय छात्रों का अमेरिका जाने का मुख्य कारण वहां पढ़ाई के बाद नौकरी पाना होता है। लेकिन ट्रंप प्रशासन ने एच-1बी वीजा पर 100,000 डॉलर (लगभग 88 लाख रुपये) का वार्षिक शुल्क लगाने का प्रस्ताव रखा है। यह निर्णय छात्रों और आईटी पेशेवरों दोनों के लिए घातक साबित हो सकता है। इससे भारतीय कंपनियों की लागत भी बढ़ेगी और छात्रों के लिए अमेरिका में करियर बनाना लगभग असंभव हो जाएगा।
4. बढ़ती लागत और आर्थिक दबाव
अमेरिका में ट्यूशन फीस लगातार महंगी होती जा रही है। साथ ही, डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरती कीमत और जीवन-यापन के खर्च ने अमेरिका में पढ़ाई को एक बेहद महंगा सौदा बना दिया है।
कई छात्र शिक्षा ऋण लेकर जाते हैं, लेकिन जब उन्हें वीजा या नौकरी की अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है, तो यह निवेश जोखिम भरा साबित होता है। इसके विपरीत, जर्मनी जैसे देशों में पब्लिक यूनिवर्सिटी में ट्यूशन फीस बेहद कम है, जिससे वे छात्रों के लिए एक सस्ता और सुरक्षित विकल्प बन गए हैं।
अमेरिकी विश्वविद्यालयों पर आर्थिक असर
विदेशी छात्रों की संख्या में गिरावट का सीधा असर अमेरिकी विश्वविद्यालयों की आय पर पड़ा है। अनुमान है कि विश्वविद्यालयों को अरबों डॉलर का घाटा हो सकता है।
विदेशी छात्र अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हर साल लगभग 44 अरब डॉलर का योगदान करते हैं और करीब चार लाख नौकरियों को बनाए रखते हैं। आंकड़े बताते हैं कि हर तीन विदेशी छात्रों पर अमेरिका में एक नई नौकरी पैदा होती है। ऐसे में भारतीय छात्रों की कमी न केवल विश्वविद्यालयों बल्कि अमेरिकी श्रम बाजार के लिए भी चिंता का विषय है।
भारतीय छात्रों का रुख: नए विकल्पों की तलाश
जहां अमेरिका अपनी लोकप्रियता खो रहा है, वहीं जर्मनी भारतीय छात्रों के लिए नई पसंद बनकर उभर रहा है। TNE रिपोर्ट के अनुसार, 2024-25 में जर्मनी में भारतीय छात्रों के दाखिले में 32.6% की वृद्धि दर्ज हुई है।
कम ट्यूशन फीस, उत्कृष्ट शिक्षा प्रणाली और बेहतर वर्क-परमिट नीतियां जर्मनी को आकर्षक बनाती हैं। इसके अलावा, कनाडा और ब्रिटेन जैसे पारंपरिक गंतव्यों में भी गिरावट तो आई है, लेकिन यह अमेरिका की तुलना में काफी कम है।
आगे की राह: भारत और छात्रों के लिए सबक
यह बदलाव भारतीय छात्रों के दृष्टिकोण में भी बड़ा परिवर्तन दिखाता है। अब वे केवल प्रतिष्ठा के बजाय शिक्षा की लागत, भविष्य में नौकरी की संभावनाओं और राजनीतिक स्थिरता को भी ध्यान में रखकर निर्णय ले रहे हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अमेरिकी प्रशासन ने अपनी नीतियों में सुधार नहीं किया, तो यह प्रवृत्ति आने वाले वर्षों में और गहरी हो सकती है। इससे न केवल अमेरिका की वैश्विक शैक्षणिक प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचेगा, बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी।
भारतीय छात्रों के लिए यह समय चुनौतीपूर्ण जरूर है, लेकिन साथ ही अवसरों से भरा भी है। जर्मनी, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के अन्य देशों में उच्च शिक्षा और करियर की संभावनाएं लगातार बेहतर हो रही हैं। यह स्थिति भारत को भी अपने उच्च शिक्षा क्षेत्र में सुधार करने की प्रेरणा दे सकती है, ताकि छात्र विदेश जाने के बजाय देश में ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पा सकें।
निष्कर्ष
अमेरिका कभी भारतीय छात्रों के लिए सपनों की भूमि माना जाता था, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में यह सपना फीका पड़ता नजर आ रहा है। कठोर वीजा नीतियां, राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ती लागत ने छात्रों को नए विकल्प तलाशने पर मजबूर कर दिया है।
अगले कुछ साल यह तय करेंगे कि अमेरिकी विश्वविद्यालय अपनी खोई चमक वापस पा पाएंगे या फिर भारतीय छात्र जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों की ओर स्थायी रूप से रुख कर लेंगे। फिलहाल इतना तय है कि “अमेरिकन ड्रीम” अब पहले जैसा आकर्षक नहीं रह गया है।
